याद आ रही है एक कहावत- “हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं”. कौन जीता कौन हारा या फिर कौन जीतेगा यह सभी भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है. हार जीत तो जीवन का हिस्सा है. यदि जीत को स्थाई बनाना है तो सबसे जरूरी है हार के कारणों का पता लगाना और उसे दूर करने का प्रयास करना. हम यह भी सुनते आए हैं कि “समस्या का पहचान समस्या का आधा समाधान है”. मूल प्रश्न यह है कि क्या हम आज भी किसानों के समस्या को पहचान पाये हैं।
वास्तविकता से सभी परिचित है, लेकिन सभी वर्ग का अपना-अपना स्वार्थ और हित है। कोई पूर्णता ना सही है ना गलत. लेकिन सरकार ने बिल ला दिया तो उसे येन केन प्रकारेण जस्टिफाई करने का प्रयास हो रहा था. अनेक विरोधी भी सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे थे. बेशक यह बिल जिस रुप और प्रकार से लाया गया उसमें रफू संभव ही नहीं था.
यह सत्य है कि आज किसान कानूनों में सुधार की जरूरत है। लेकिन नागरिक विमर्श भी कोई चीज होती है और इसका भी एक महत्व है. अगर यही बिल किसानों से विमर्श के बाद लाया गया होता तो आज स्थिति कुछ और होती. देश का भला होता, पार्टी का भी. लेकिन आदत इतनी आसानी से नहीं जाती. यहां तो दाढ़ी बढ़ाकर भी चुनाव जितने की योजना बनाई जाती है, क्योंकि ऐसे तुक्के चल भी जाते हैं. दोष किसका है, सरकार का या जनता का?
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है. सत्ता के जिम्मेदारियों और पावर के नशा के बीच अगर सरकार कुछ नहीं देख पाती तो मीडिया उससे उजागर कर देती थी. इससे देश काभला होता था. लेकिन अफसोस आज की मीडिया ने सरकार के पीछे चलने का चयन किया है. इससे पार्टी का भला हो सकता है देश का नहीं.
भारतीय राजनीति का यह दुर्भाग्य है के विकेंद्रीकरण के जगह फिर से यह केंद्रीकरण और व्यक्तिवाद की ओर बढ़ चली है. यहां सरकार पार्टी की नहीं व्यक्ति की मानी जाती है. बेशक नेता के छवि को भुनानर का प्रयास गलत भी नहीं. लेकिन इससे आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होती है और ऐसी गलतियां होती हैं. कभी गलती मान ली जाती है तो अक्सर कुतर्क देखकर बचने का प्रयास जारी रहता है. परिस्थिति नहीं बदली तो ऐसी गलतियां होती रहेंगी और देश को उसका परिणाम झेलते रहना होगा, चाहे पार्टी कोई भी हो, केंद्र की या राज्य की.
Rahul Mehta