केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि पति- पत्नी के कल्याण और भलाई के लिए केंद्र सरकार को भारत में समान विवाह संहिता पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.लाइव लॉ की खबर के मुताबिक, जस्टिस ए मोहम्मद मुस्ताक और जस्टिस शोबा अन्नम्मा एपेन की खंडपीठ ने कहा कि जब बात वैवाहिक संबंधों की आती है तो वर्तमान कानून पक्षकारों को उनके धर्म के आधार पर अलग करता है.अदालत ने कहा, ‘एक धर्मनिरपेक्ष देश में कानूनी पितृसत्तात्मक धर्म के बजाय नागरिकों की समान भलाई सुनिश्चित करने पर केंद्रित होना चाहिए और भलाई के समान उपायों की पहचान करने में धर्म का कोई स्थान नहीं है.’अदालत ने आगे कहा कि कल्याणकारी उद्देश्यों का असर पक्षकारों पर भी दिखना चाहिए.
अदालत ने कहा, ‘आज फैमिली कोर्ट युद्ध का एक और मैदान गए हैं, जो तलाक की मांग करने वाले पक्षों की पीड़ा को बढ़ा रहे हैं. यह इस कारण से स्पष्ट है कि फैमिली कोर्ट्स एक्ट से पहले अधिनियमित पर्याप्त कानून सामान्य हित या अच्छे को बढ़ावा देने के बजाय प्रतिकूल हितों पर निर्णय लेने के लिए एक मंच पर तैयार किया गया था. समय आ गया है कि पक्षकारों पर लागू होने वाले कानून में एक समान मंच से बदलाव किया जाए.’न्यायालय ने तलाक अधिनियम, 1869 की धारा 10 के तहतएक वर्ष की अलगाव की न्यूनतम अवधि के निर्धारण कोचुनौती देने वाली एक याचिका पर अपने फैसले में यह टिप्पणीकी कि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. इसमें आगे कहागया है कि तलाक पर कानून को विवाद के बजाय पक्षकारों परध्यान देना चाहिए.