फ़िल्म कांतारा बहुत चर्चा में है और आज हम आपको बताने वाले है इस फिल्म में दिखाए गए देवता “पंजुरली देव” के बारे में। पंजुरली देव की उपासना दक्षिण भारत, विशेषकर कर्णाटक और केरल के कुछ हिस्सों में की जाती है।पंजुरी शब्द वास्तव में एक तुलु शब्द “पंजीदा कुर्ले” का अपभ्रंश है। भाषा में इसका अर्थ होता है “युवा वाराह” ये कुछ कुछ भगवान विष्णु के वाराह अवतार की ही तरह है।
तुलु लोगों में, जिन्हें तुलुनाडु भी कहा जाता है, पंजुरली देव सबसे प्राचीन देवताओं में से एक हैं। ऐसी मान्यता है कि जब पहली बार पृथ्वी पर अन्न की उत्पत्ति हुई उसी समय पंजुरली देव पृथ्वी पर आये, अर्थात मानव सभ्यता के आरम्भ में।कुछ विद्वानों का ये भी मानना है कि जब मनुष्यों ने खेती करना सीखा तो उस समय जंगली सूअर (वाराह अपने पेट भरने के लिए उनकी फसल को खा जाते थे। उन्होंने इसे कोई दैवीय शक्ति समझ लिया और वाराह रूपी पंजुरली देव की उपासना करना आरम्भ कर दिया ताकि वे उनकी फसलों की रक्षा करें। तब से ही पंजुरली देव की पूजा हो रही है। आज भी पंजुरली देव की पूजा करते समय लोग “बरने-कोरपुनि” नामक एक प्रथा करते हैं। जहाँ वे देवता को अन्न अर्पण करते हैं। इसके बाद पंजुरली देव के समक्ष एक बेहद प्राचीन नृत्य किया जाता है जिसे “भूता कोला” कहते हैपौराणिक कथा के अनुसार एक वाराह के पांच पुत्र हुए किन्तु उनमें से एक नवजात बच्चा पीछे छोट गया। वो भूख प्यास से तड़पने लगा और मृत्यु के कगार पर आ खड़ा हुआ।
उसी समय माता पार्वती वहां भ्रमण करते हुए आयी। जब उन्होंने एक नवजात वाराह शिशु को देखा तो उन्हें उसपर दया आ गयी और वे उसे लेकर कैलाश आ गयी। वहां वो अपने पुत्र की भांति ही उसका पालन करने लगी।समय बीता और उस बच्चे ने एक विकराल वाराह का रूप ले लिया। समय के साथ उसके दाढ़ (दांत) निकल आये जिससे उसे बड़ी परेशानी होने लगी। उस खुजलाहट से बचने के लिए वो पृथ्वी पर लगी सारी फसलों को नष्ट करने लगा। इससे संसार में भोजन की कमी हो गयी और लोग भूख से त्रस्त हो गए। जब भगवान शंकर ने ये देखा तो उन्होंने सृष्टि के कल्याण के लिए उस वाराह के वध का निश्चय किया।जब माता पार्वती को ये पता चला तो उन्होंने महादेव से उसके प्राण ना लेने की प्रार्थना की। माता की प्रार्थना पर महादेव ने उसका वध तो नहीं किया किन्तु उसे कैलाश से निष्काषित कर पृथ्वी पर जाने का श्राप दे दिया।
अपनी प्राण रक्षा के बाद उस वाराह ने महादेव और माता पार्वती की अभ्यर्थना की और तब भोलेनाथ ने उसे एक दिव्य शक्ति के रूप में पृथ्वी पर जाने और वहां पर मनुष्यों और उनकी फसलों की रक्षा करने का आदेश दिया।तब से वो वाराह पृथ्वी पर “पंजुरली” देव के रूप में निवास करने लगे और पृथ्वी पर फसलों की रक्षा करने लगे। इसी कारण लोगों ने इन्हे देवता की भांति पूजना आरम्भ कर दिया। दक्षिण भारत में अलग-अलग स्थानों पर इन्हे अलग-अलग नाम से जाना जाता है। इनके नाम के साथ साथ इनकी पूजा पद्धति और रूप भी अलग-अलग हैं। अधिकतर स्थानों पर इन्हे वाराह के रूप में ही दिखाया जाता है किन्तु कुछ स्थानों पर इन्हे मुखौटा पहने हुए मनुष्य के रूप में भी दर्शाया जाता है।