9 जनवरी 1900 को आज के ही दिन बिरसा मुंडा के नेतृत्व में डोंबारी में विद्रोह की रणनीति बनाते समय अंग्रेजो के द्वारा आदिवासियो की जुटी भीड़ पर गोली चला दी गईं थी। जिसमे शिलापट्ट में अंकित छह आदिवासियों की मौत होने की प्रामाणिकता मौजुद है लेकिन इस गोलीकांड में छः नहीं बल्कि दो सौ से अधिक आदिवासियो की मौत की खबर को अंग्रेजो से लेकर अबतक छुपाई गईं है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में झारखंड के शहीदों की पहचान कर उन्हें आजादी के 75वें साल में उचित सम्मान की गारंटी के लिए भाकपा माले और आदिवासी संघर्ष मोर्चा ने आज डोंबारी बुरू विद्रोह दिवस को सम्मान पूर्वक मनाया । सर्वप्रथम बिरसा केन्द्रीय कारा स्थित वीर विरसा की आदमकद प्रतिमा पर नेताओं ने मल्यार्पण किया। उसके बाद आदिवासी मोर्चा और माले नेताओं का दल डोंबरीबुरु भी गए जहा मल्यार्पण कर सभा की गई। अड़की एवम आसपास के सैंकड़ों लोग शामिल हुए। सभा को सम्बोधित करते हुए माले राज्य सचिव मनोज भक्त ने कहा कि अंग्रेजों से लेकर हमारी सरकारों के द्वारा भी विरसा के संघर्षों को नजरअंदाज किया गया है। विद्रोह स्थल डोंबरी बूरू देश का दूसरा जलियावाला बाग है। आदिवासी संघर्ष मोर्चा और माले बिरसा के सपनों के अनुरूप झारखंड को गढ़ने के लिए बड़ी एकता और बडी गोलबंदी के साथ झारखंड की जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए आन्दोलन तेज करेगी। विद्रोह स्थल डोंबरी बूरू में माले और आदिवासी संघर्ष मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने संकल्प लिया। जिसमें • कॉरपोरेट लूट को बढ़ावा देने वाला प्रोपर्टी कार्ड के खिलाफ आंदोलन तेज़ करने , मोदी राज को ध्वस्त करें
• आदिवासी और किसान विरोधी केंद्र सरकार को ध्वस्त करने,
• सभी आदिवासी क्षेत्रों में संविधान की 5वीं अनुसूची को लागू करने
• वन अधिकार अधिनियम, 2006 को अक्षरश: लागू करने
• वन विभाग, पुलिस और सशस्त्र बलों के हाथों आदिवासियों पर हमले को समाप्त करने समेत कई कार्यक्रम शमिलहै। सभा को आदिवासी संघर्ष मोर्चा के केन्द्रीय संयोजक देवकीनंदन बेदिया , रामगढ़के जिलासचिव भूवनेश्वरcबेदिया,सोहराय किश्कू, सुदामा खलखो, सिनगी खलखो, संतोष मुंडा समेत माले नेता भुवनेश्वर केवट ,मोहन दत्ता , जयवीर हांसदा लखमनी मुंडा, भीष्म महतो,,समेत कई नेतागण मौजूद थे।आदिवासी संघर्ष मोर्चा
9 जनवरी, 1900 को डोंबारी बुरु (झारखंड) में बिरसा मुंडा ने ‘अबुआ दिसुम, अबुआ राज’ (हमारा देस, हमारा राज) नारे के साथ अंग्रेजों और महाजनों से आजादी का संघर्ष छेड़ा था. उलगुलान की घोषणा की थी। सौ से अधिक मुंडा विद्रोहियों ने ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी।
आज आदिवासियों को आजादी के बाद के भारत में अपनी पहचान और अधिकारों पर सबसे बड़े हमले का सामना करना पड़ रहा है। प्रो-कॉरपोरेट सरकार की नीतियों ने आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट की छूट कंपनियों को दे दी है. खदानों, बांधों, राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों आदि के नाम पर कॉरपोरेट कब्जा और विस्थापन आदिवासियों पर थोपा जा रहा है। पूरे मध्य भारत में तथाकथित विकास परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया जा रहा है। दूसरी ओर, पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासियों को सशस्त्र बलों के हाथों अन्यायपूर्ण ‘विशेष सशस्त्र बल अधिनियम’ के दुरपयोग का शिकार होना पड़ रहा है. सशस्त्र बलों के हाथों नागालैंड में 14 आदिवासियों का नरसंहार इसके हाल का उदाहरण है। दक्षिण भारत में आदिवासियों को 5वीं अनुसूची के संवैधानिक संरक्षण से वंचित रखा गया है।
देश भर में जमींदारी और सूदखोरी आदिवासियों को गुलाम और लाचार बनाने जुड़वां हथियार है। आदिवासियों को बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक की पहुंच से वंचित रखा जाता है। किसी भी आदिवासी प्रतिरोध को विकास-विरोधी एवं राष्ट्रविरोधी कृत्य करार दिया जाता है और बर्बर दमन और सुनियोजित उत्पीड़न द्वारा कुचल दिया जाता है। इस आर्थिक बेदखली और राज्य दमन के साथ-साथ, आदिवासियों को तीखे सांस्कृतिक हमले का भी सामना करना पड़ रहा है। आरएसएस आदिवासियों को धार्मिक आधार पर विभाजित करने के लिए दिन-रात साजिश में लगा हुआ है।
आज इन्हीं स्थितियों में आदिवासी अपनी सांस्कृतिक पहचान और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए चल रहे कॉर्पोरेट एवं सांप्रदायिक आक्रमण, जमींदारी और सूदखोरी के खिलाफ दृढ़ता से लड़ाई लड़ रहे हैं। आदिवासी संघर्ष मोर्चा बिरसा मुंडा के उलगुलान के इस खास दिन, डोंबारी संघर्ष दिवस के अवसर पर उत्पीड़न और कॉरपोरेट गुलामी के खिलाफ आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई तेज करने का संकल्प लेता है